शायद मैं छल रही हूँ खुद को और तुम्हें भी ....
क्यूँ बेचैन है दिल तुम्हारे लिए
तुम जो बहुत दूर हो मुझसे...
शायद || तुम तक पहुँचना भी
मेरे लिए मुमकिन नहीं
फिर क्यूँ आहत होता है दिल
तुम्हारे दूर जाने की बातों से
तुम कब थे ही मेरे पास
या तुम्हारा अहसास ही है मेरे लिए खास...
जो हमारे बीच के फासलों को कम करता है
और हमें जोड़े रखता है एक दूजे से...
पर ये जुड़ाव भी कैसा....
जो कभी हकीकत नहीं बन सकता...
मै जानती हूँ और मानती भी हूँ
पर फिर भी कहती रहती हूँ
की,, मै तुमसे प्यार करती हूँ
और शायद..मेरा यही प्यार
तुम्हारे लिए बंदिश होता जा रहा है...
जो तुम्हें आगे बढ़ने से रोकता है ...
ना तुम मेरे हो सकते हो
ना मै तुम्हारी
शायद मैं छल रही हूँ खुद को और तुम्हें भी ....
मुझे जाना कहीं और है
मेरे हाथों में किसी और का हाथ होगा एकदिन
पर जिंदगीभर मैं तुम्हें साथ पाना चाहती हूँ
ये कैसे मुमकिन होगा तुम्हारे लिए...
मुझे कहीं और देखना
पर मेरा ये स्वार्थी प्यार
हर मोड़ पर तुम्हें साथ पाना चाहता है...
शायद मैं छल रही हूँ खुद को और तुम्हें भी ....
प्यार जो फासलों में जीता है...
टीस है ये दर्द की
आह है ये जुदाई की....