( लिजिए आ गयी हूँ मैं अपनी उलझन लेकर )
जब भी बढ़ते है कदम ऊँचाई की ओर
रिश्तों की डोर ढ़ीली हो जाती है
जिनसे उम्मीद हो साथ निभाने का
ना जाने क्यों उनसे ही दुरी हो जाती है
सच कामयाबी देती है- कुछ
पर लेती है- बहुत कुछ
जब भी चढ़ती हु एक सीढ़ी
मंजिल की तरफ हाथ बढाती ही हूँ की,,,
अपनों का हाथ छुटता जाता है
समझ में फेर है उनके
या मेरी ही कहीं गलती है
कुछ पाने की चाह थी
बस इतनी सी तो आस थी
या यही मेरी गलती है.....
तुम क्यों ना समझ पाए मेरी ख्वाहिशे
मेरी आशाये .....,मेरी मंजिले....,,,
हमराह बनने की बजाय क्यों गुमराह हुए तुम
कैसी ये उलझन है मंजिले भी अपनी है..
रिश्ता भी अपना......
किसे समझे किसे समझाए ...
उलझन.....
s4u