कितना बदल दिया था
खुद को तुम्हें पाने के लिए
कैसी जिज्ञासा थी वो ????
कैसा बचपना था ???
कैसा बचपना था ???
जरा भी ना सोचा
की कब तक पहन सकुंगी
ये झूठा मुखौटा .....
तुम्हें पाने के नाम पर
खुद को भूलती जा रही हूँ
आज इस मुखौटे को
उतार कर तो देखूँ
की , कितना पीछे छोड़ दिया है खुद को
या अभी भी मेरा अस्तित्व
इस मुखौटे के पीछे दम तोड़ रहा है...
अब भी इसमे कुछ जान बाकि है
बेचारा ,,,,कितना घुटा होगा इस मुखौटे के पीछे
कैसे भूल गई मै,,,,
मेरा यही अस्तित्व तो मेरी पहचान है......
इस मुखौटे की तरह नहीं
जिसे मैंने पहना था
कुछ समय पहले .......
तभी से तो लोग कहने लगे
की,,,तू कितना बदल गई है....
क्या मेरा बदलना सही था..
जब इस मुखौटे का रंग फीका पड़ता
तो मेरा असली अस्तित्व
सामने आ ही जाता न...
उस वक्त क्या करती मैं
फिर एक नया मुखौटा लगाती
अच्छा किया जो आज
तुम्हें भुलाने का फैसला किया...
तभी तो अंतर्मंथन कर
पाई हूँ स्वयं का ....
और देखो.....
जबसे तुम्हे भूली हूँ ,, खुद को पा लिया है मैंने....