सवेरे होते ही आती हू, शाम को फिर चली जाती हू,
अपने ही रूप को अंधेरे में अकेला छोड़ देती हू,
उजाले में तो सब साथ निभाते है,
पर अँधेरे में कौन साथ निभाएगा,
मेरे रूप को अँधेरे में कौन राह दिखायेगा
मै कर भी क्या सकती हू ये तो मेरी फितरत है ,
मै,,, मै क्या हू जो भी है सब कुदरत है.....
अँधेरी रात में है मेरे रूप को एक हमसफ़र की तलाश
और मै गुमशुदा वीरान जंगल में बैठी हू उदास
दूर से देख रही हू अपने रूप को भटकता हुआ
पर पास जाकर उसे राह दिखाने में मै हू लाचार
मै कर भी क्या सकती हू ये तो मेरी फितरत है,
मै ,,,,,,मै क्या हू जो भी है सब कुदरत है......
... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
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मै कर भी क्या सकती हू ये तो मेरी फितरत है,
जवाब देंहटाएंमै ,,,,,,मै क्या हू जो भी है सब कुदरत है......
apki poem to bahut hi mast hai
specially this line
गहरे भाव....
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