महक उठता था मेरा अंग
जब तू था मेरे संग
वो गुलाबी गुलाब के फूल
चुभे थे तुम्हारे हाँथों में
उसके शूल
सुर्ख लाल रंग लहू से अपने
भर दी थी तुमने माँग मेरी
और चूम लिया था मैंने
अपने लाल होंठों से
तुम्हारा माथा
तिलक के पर्याय मे
और इस तरह कर लिया था
हमने ब्याह
गुलाब को साक्षी मानकर
और आज वही गुलाब
अपने फीके पड़े रंगों में
सकुचाया - सा दबा पड़ा है
किताबों के बिच
झर जाने को बेताब
क्यूँकी वह नहीं बन सकता
निशानी हमारे बिछोह की
उसे नामंजूर है
हमारा एक - दूजे से बिछड़ना
और तुम्हें ??
समय एक सा कहाँ रहता है
जवाब देंहटाएंसमय-समय की बात है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-12-2016) को "जीने का नजरिया" (चर्चा अंक-2559) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'